हमारा देश भारत एक ऐसा देश है, जहां जरा जरा सी बातों पर कोर्ट-कचहरी, मुकदमेबाजी हो जाती है। दीवानी-फौजदारी के मुकदमों की तो कोर्ट में भरमार रहती है। इसके अलावा क्रिमिनल, मानहानि जैसे मुकदमे भी कोर्ट में रहते हैं। पारिवारिक वाद, तलाक आदि के मुकदमे भी सुनवाई के लिए लगे होते हैं। न्याय व्यवस्था का हाल यह है कि न्यायिक प्रक्रिया लगातार लंबी खिंचती रहती है।
कई मामलों में तो आम आदमी की जिंदगी कचहरी में चप्पलें घिसते-घिसते खत्म हो जाती है। कई बार उनकी मौत के बाद फेसला आता है। आखिर न्यायिक प्रकिया के लंबे खिंचने एवं कोर्ट फैसले में देरी की क्या वजह है, आज इस पोस्ट में हम आपको इसी संबंध में विस्तार से जानकारी देंगे। आइए शुरू करते हैं-
कोर्ट फैसले में देरी के 9 कारण [9 reasons for delay in court decision] –
कोर्ट कचहरी का नाम आते ही लोगों के हाथ पर फूल जाते हैं। ऐसा नहीं है कि लोग कोर्ट कचहरी से डरते हैं। आज न्याय व्यवस्था काफी हद तक सुधर चुकी है। और काफी प्रचार प्रसार भी हो चुका है। आम नागरिकों में जागरूकता भी काफी आ चुकी है। लोग सभी सुविधाओं का उपयोग कर रहे हैं। लेकिन फिर भी कोर्ट कचहरी का नाम आते ही लोग परेशान हो जाते हैं। तरह-तरह के सवाल लोगों के मन में घूमने लगते हैं।
अक्सर लोगों का मानना है कि कोर्ट कचहरी के चक्कर में पड़ने से काफी ज्यादा टाइम खराब होता है। जिसके कारण अधिकतर मामले कोर्ट के बाहर ही सुलझाने का प्रयास किया जाता है। लेकिन कोर्ट कचहरी के मामले में इतनी देरी क्यों लगती है इसके कुछ मुख्य कारण आपको नीचे बताए जा रहे हैं –
1. भारत में विभिन्न कोर्ट में करोड़ों मामले लंबित
यह तो आप समझ ही गए होंगे कि कोर्ट में हर रोज इतने मामले आते हैं कि इनकी त्वरित सुनवाई संभव नहीं होती। इससे कोर्ट में पेंडिंग केसों की भरमार हो जाती है। यह फैसलों में देरी का बड़ा कारण है। सुप्रीम कोर्ट एवं नेशनल ज्यूडिशियल डाटा ग्रिड के आंकड़ों पर गौर करें तो वर्तमान में जिला एवं सब आर्डिनेट अदालतों (district and subordinate courts) में करीब 3.9 करोड़ मामले लंबित हैं।

हाईकोर्ट (high court) में लंबित मामलों की संख्या लगभग 58.5 लाख है, वहीं 69 हजार से अधिक मामले सुप्रीम कोर्ट (supreme court) में लंबित हैं। आपको बता दें कि देश में कुल 25 हाईकोर्ट हैं। यदि कोई स्वीकरणीय कारण है तो कोर्ट किसी केस को कितनी भी बार पीछे खिसका सकती है। दोस्तों, एक अध्ययन के अनुसार देश के उच्च न्यायालयों में जज हर रोज करीब 20 से लेकर 150 तक मामले सुनते हैं।
करीब 70 सुनवाई हर रोज होती हैं। एक सामान्य औसत की बात करें तो जज करीब पांच से साढ़े पांच घंटे हर रोज केस सुनने में बिताते हैं। एक सुनवाई पर करीब 15-16 मिनट लगते हैं। देश में पटना हाई कोर्ट (patna High court) को सबसे व्यस्त माना जाता है, जहां एक केस सुनने में जज तकरीबन ढाई मिनट लगाते हैं। जबकि फैसले देने में महज 5-6 मिनट लगाते हैं।
2. निचली अदालतों में जजों के रिक्त पद
दोस्तों, आपको बता दें कि निचली अदालतों में जजों के करीब साढ़े पांच हजार के आस पास रिक्त पद हैं। इसके लिए किसी की जवाबदेही तय नहीं है, जबकि होना यह चाहिए कि इसके लिए उच्च न्यायालय यानी High court की जवाबदेही तय होनी चाहिए।
3. जनहित याचिकाओं की भरमार
दोस्तों, कोर्ट में अब जनहित याचिकाओं की भरमार हो रही है। इस वजह से कोर्ट में लंबित अन्य मामलों की सुनवाई में देरी लग रही है। देखने में यह भी आया है कि कुछ वकील मिलकर जिस मामले को चाहते हैं, जनहित याचिका का रूप दे देते हैं। इससे व्यर्थ की याचिकाओं की संख्या कोर्ट में बढ़ रही है एवं अन्य मामलों की सुनवाई के लिए समय नहीं मिल पा रहा है।
4. लंबे एवं भारी-भरकम हां हेलोकोर्ट फैसले में देरी
दोस्तों, लंबे एवं भारी भरकम फैसले देने का चलन भी इनमें देरी की एक बड़ी वजह है। इस संबंध में 1973 का केशवानंद भारती का मामला मिसाल के तौर पर लिया जा सकता है। इस मामले में 13 जजों की पीठ ने 700 पेज का फैसला दिया था। इसी प्रकार आज से छह साल पहले सन् 2015 में न्यायिक आयोग (judicial commission) के एक मामले में लगभग एक हजार पेज का निर्णय दिया गया था।
इसी प्रकार आधार से जुड़ा एक फैसला भी लगभग 1448 पेज का था। इस तरह के लंबे फेसले न्यायिक प्रक्रिया में देरी उत्पन्न करते हैं। दोस्तों, आपको बता दें कि आज से करीब 20 वर्ष पूर्व यानी सन् 2001 में सुप्रीम कोर्ट के जज केटी थाॅमस ने एक व्यवस्था दी थी कि सुनवाई के बाद तीन माह की अधिकतम सीमा के अंदर लिखित फैसला हो जाना चाहिए। लेकिन यह व्यवस्था बंद हो गई।

मित्रों, शायद आपको नहीं पता होगा कि सुप्रीम कोर्ट में मामले की जल्द सुनवाई हो, इसके लिए चीफ जस्टिस (chief justice) के सामने मेंशनिंग (mentioning) करने का चलन है।
लेकिन इस संबंध में कोई लिखित नियम न होने से परेशानी ख़ड़ी हो जाती है। पुराने मामलों को दरकिनार कर नए मामलों में सुनवाई शुरू हो जाती है। यह कहना अनुचित न होगा कि इस संबंध में पारदर्शी व्यवस्था की सख्त दरकार है।
साथियों, आपको बता दें कि कई मामलों में सीनियर वकील अपने क्लाइंट की आवश्यकता एवं सुविधा के मद्देनजर उसे नया मोड़ देने की कोशिश करते हैं। ऐसे में वे नए सिरे से मामले की सुनवाई का आग्रह जज से करते हैं, जिसे आम तौर पर मान भी लिया जाता है। इससे न्याय प्रक्रिया में देरी होती है, लिहाजा मामले में फैसला भी देरी से आता है।
7. वकीलों का एक साथ कई मुकदमे लड़ना
वकील एक साथ कई मामलों को हाथ में लेते हैं, ऐसे में सुनवाई में देरी होती है, लिहाजा फैसले भी देरी से होते हैं। आपको बता दें दोस्तों कई बार इस ग्राउंड पर वकील अदालत से समय की दरख्वास्त करते हैं, जिसकी छूट उन्हें कोर्ट से अक्सर प्रदान भी कर दी जाती है।
8. कोर्ट मैनेजरों की योजना को अच्छी तरह डिजाइन करने एवं लागू करने में विफलता
मित्रों, कुछ समय पूर्व अदालती व्यवस्था को चुस्त दुरुस्त बनाने के लिए कोर्ट मैनेजर्स की व्यवस्था की पेशकश की गई थी। इस संबंध में नेशनल कोर्ट मैनेजमेंट सिस्टम कमेटी (national court management system committee) ने भी सुझाव दिए थे। लेकिन इन पर सिरे से कोई अमल नहीं किया गया।
9. अदालतों में अवकाश
अदालतों में अवकाश की अवधि लंबी होती है। चाहे ग्रीष्म कालीन अवकाश हो अथवा अन्य त्योहारों पर होने वाली छुट्टियां। ऐसे में मामलों पर सुनवाई पर ब्रेक लग जाता है। केस लिस्टिंग इन अवकाश से पूर्व ही कर दी जाती है। लेकिन लोगों के केस इन अवकाश की वजह से पीछे खिसक जाते हैं।
कोरोना काल में अदालतों के बंद रहने से लटक गए मामले
दोस्तों, जिस प्रकार कोरोना वायरस ने दुनिया भर के लोगों की जिंदगी को प्रभावित किया, इसी प्रकार अदालतों की कार्यवाही भी प्रभावित रही। अदालतें लंबे समय तक बंद रहीं। इस वजह से लोगों के आवश्यक मामले लंबे समय तक लटके रहे। कोर्ट खुलने के पश्चात अब वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग (video conferencing) के जरिए भी मामलों का निपटारा किया जा रहा है।
कई मामलों में सुनवाई तेजी से होती है। जैसे शाहरुख खान के बेटे आर्यन खान के मामले में देखा जा सकता है। उसकी जमानत के मामले में सुनवाई तेजी से की जा रही थी। इसके लिए पूरी लीगल टीम लगा दी गई थी। पुराने वकील को हटाकर नए एवं बेहद महंगे वकील मुकुल रोहतगी को जिम्मा सौंपा गया था।
हालांकि कोर्ट इस तरह सुनवाई को निर्धनों की दृष्टि से उचित नहीं ठहराता। उसके अनुसार इस वजह से दूसरे पक्ष को, जिसके पास संसाधन कम होते हैं, दिक्कत पेश आती है।
- कोर्ट जाएं, वहां अपने केस की तारीखों के मुताल्लिक डाॅकेट या कोर्ट कैलेंडर देखें।
- दूसरे पक्ष को भी सूचित कर दें कि आप अपना केस की डेट जल्द लगवाना चाहते हैं।
- वकील से संपर्क करें।
- इस बाबत याचिका करें एवं इसे सबमिट कर दें।
बाॅलीवुड की फिल्मों में भी दिखाई गई है न्याय प्रक्रिया में देरी की तस्वीर
बाॅलीवुड की कई फिल्मों में न्याय प्रक्रिया में देरी की तस्वीर नजर आई है। यदि आपने राजकुमार संतोषी निर्देशित ‘दामिनी’ फिल्म देखी होगी तो आपको इसमें वकील का किरदार अदा करने वाले सनी देओल का एक डायलाॅग अवश्य याद होगा, ‘तारीख पे तारीख पे तारीख…’। यह डायलाॅग विभिन्न कोर्ट में लगे मुकदमों की कतारों और विभिन्न मामलों में होने वाली देरी की सच्ची तस्वीर दिखाता है।
भारत में न्याय व्यवस्था को लेकर एक कहावत कही जाती है-चाहे सौ गुनाहगार छूट जाएं, लेकिन किसी गुनाहगार को सजा न मिले। आरोप तय करने एवं इसके बाद गुनाह को लेकर दोनों पक्षों की ओर से पेश किए जाने वाले सुबूतों पर बहस-मुबाहिसे चलते इतनी देरी हो जाती है कि कई बार न्याय पाने वाले को लगता है कि उसके साथ न्याय की जगह अन्याय हुआ है।
भारत में ही इस तरह की कई केस आए हैं, जिसमें बेगुनाह को सजा हुई है और सालों बाद पता चला कि उसने संबंधित गुनाह किया ही नहीं था। इसीलिए यह कथन भी प्रचलन में आया, justice delayed is justice denied.
अब तक का सबसे लंबा लंबित केस कौन कौन सा है
मित्रों, आपको सुनकर आश्चर्य होगा कि भारत में अब तक का सबसे लंबा केस राजस्थान कोर्ट में लंबित है। यह 1956 से यानी कि 65 साल से चल रहा है। केंद्रीय विधि एक न्याय राज्य मंत्री पीपी चैधरी ने इस संबंध में जानकारी प्रदान की थी। यदि क्रिमिनल केस की बात करें तो इलाहाबाद एवं जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट में 1976 से चल रहे मुकदमे आज तक जारी हैं।
कोर्ट फैसले में देरी से जुड़े सवाल जवाब –
कोर्ट के फैसले में देरी से जुड़े हजारों सवाल लोगों के दिमाग में आते रहते हैं। हम यहां पर आपको कुछ हम तो फिर पूछे जाने वाले सवालों के जवाब दे रहे हैं –
जिला एवं सब आर्डिनेट अदालतों में कितने मामले लंबित हैं?
सुप्रीम कोर्ट एवं नेशनल ज्यूडिशियल डाटा ग्रिड के आंकड़ों के अनुसार वर्तमान में जिला एवं सब आर्डिनेट अदालतों (district and subordinate courts) में करीब 3.9 करोड़ मामले लंबित हैं।
मामलों में फैसले देरी से आने की क्या वजह है?
इसका कोई एक दो कारण नहीं, बल्कि सम्मिलित वजहें हैं, जिनमें पेंडिंग केस, जनहित याचिकाओं की भरमार, लंबे एवं भारी भरकम फैसले, न्यायालय में रिक्त पद आदि शामिल हैं।
क्या अदालती कार्यवाही पर कोरोना का असर भी पड़ा है?
जी हां, कोरोना की वजह अदालतें लंबे समय तक बंद रहीं, जिससे मामले लटके रहे।
क्या अदालतों में वीडियो कांफ्रेंसिंग को मंजूरी मिली है?
जी हां, खास तौर से पोस्ट कोरोना काल में एवं कई स्थानों पर सुरक्षा के मद्देनजर अदालतें वीडियो कांफ्रेंसिंग से सुनवाई कर रही हैं। गुरमीत राम रहीम के मामले में आया फैसला इसकी एक बानगी है।
जी हां, ऐसा विभिन्न केसों में देखने को मिला है।
दोस्तों, हमने इस पोस्ट में आपको बताया कि कोर्ट के फैसलों में देरी क्यों लगती है। उम्मीद है कि इस पोस्ट से आपको कोर्ट की कार्यप्रणाली के विषय में उपयोगी जानकारी मिली होगी। यदि आप इसी प्रकार की जानकारी परक पोस्ट हमसे चाहते हैं तो उसके लिए नीचे दिए गए कमेंट बाॅक्स में कमेंट करके अपनी बात हम तक पहुंचा सकते हैं। आपकी प्रतिक्रियाओं का हमें सदैव की भांति इंतजार है। ।।धन्यवाद।।